रूपा सिंह की कहानी 'तीन बजकर चालीस मिनट'

साहित्य मेरा रंग पर कहानियों की इस शृंखला में हम चुनिंदा रचनाकारों से उनकी पसंद की कहानियों को उन्हीं से सुन रहे हैं। इस क्रम में सुनिए जानी-मानी कथाकार रूपा सिंह की कहानी 'तीन बजकर चालीस मिनट'। उनके बारे में 'पुरवाई' पत्रिका में प्रकाशित एक आलेख में कहा गया है, वैसे उनका प्रिय क्षेत्र आलोचना का है, मगर जब कविता उतरती है तो कविता लिख लेती हैं और जब “दुखाँ दी कटोरी : सुखाँ दा छल्ला” जैसी कहानी लिख देती हैं तो फ़ेसबुक पर तहलका मचा देती हैं। उनका व्यक्तित्व बिंदास है… अपने में मस्त। 

रूपा सिंह अपनी कहानियों के बारे में पुरवाई को दिए गए एक साक्षात्कार में कहती हैं, "किरदार और उनकी कोई जिद्द पहले ही भूत की तरह मुझे जकड़ी रही है जिन्हें लिखने के बाद शायद उनकी भी मुक्ति उसमें निहित हो और मेरी भी। लेखक का इसमें ज्यादा हाथ नहीं होना सिवाय यह कि वह घटनाओं को कुछ तरतीब दे दे। इधर से उधर बैठाकर इमारत का ढांचा दुरुस्त कर दे। इतना मात्र। लिखते समय आप केवल उस कथा में धंसे रहते हैं।"

सुनते हैं रूपा सिंह की कहानी 'तीन बजकर चालीस मिनट'।

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